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Hindi Poem || Love Proposal || स्वीकार यदि लेती मुझे || KaviKumar Sumit || Poem In Hindi

HINDI STORY || चरित्र निर्णय (CHARITRA NIRNAY) BY KaviKumar Sumit || SHORT STORY || HINDI LOVE STORY #STORY #LOVE_STATUS

 चरित्र निर्णय

मैं रोज़ इंटरसिटी पकड़कर सुबह छः बजे ही कॉलेज के लिए निकल जाता हूँ | मेरा कॉलेज तो 11 बजे से हैं लेकिन उसका तो 9:30 से है ना ! मैं नहीं चाहता कि कोई लम्हा बिना उसके साथ के गुज़रे | स्टेशन पहुचने से पहले मोबाइल फोन पर मैसेज कर लिया जाता है और किसी खास बोगी (डिब्बे) का क्रमांक जान लिया जाता है जिसके मिल जाने के बाद जान में जान आती है | वैसे परंपरा के अनुसार जो पहले पहुँचता है उसे एक सीट एक्स्ट्रा बुक रखने की प्रतिबद्धता स्वीकार करनी होती है , उसे तो सीट बचा कर रखने में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता लेकिन मुझे जरूर हो जाती है | मुझे नहीं पता वह सीट में किसी को ना बैठने  देने का क्या बहाना बनाती है लेकिन यार! मै कुछ बोल ही नहीं पाता लेकिन किस्मत हर बार अच्छी रही कि  "साथ में कोई और है" बोलकर मैंने अपनी प्रतिबद्धता बनाये रखी |  आपको ( पाठक को ) क्या लगता है ?

यूँ तो यहाँ कोई विशेष जगह नहीं है मेरा मतलब कोई विशेष पार्क जैसे भोपाल, दिल्ली, मुम्बई आदि में होता है लेकिन हमारे कुछ सहधर्मी ऐसा अविष्कार करने में निसदिन प्रयासरत रहते हैं | ट्रेन से उतरने के बाद मिलने की जगह निर्धारित है और नॉन ट्रांसफरेबल भी, स्टेशन के सामने वाला हनुमान जी का मन्दिर | एक बात बोलूँ हमें ख़तरा केवल इनके चेलों से है इनके मन्दिर से बिलकुल नहीं | मुझे पता है आप मुस्कुरा रहें है, क्या करें अपनी फ़ितरत ही इनडायरेक्ट है |


ज वह मन्दिर के बिलकुल बगल में लगे 'कविकुमार सुमित' के बैनर के नीचे खड़ी थी | उसने मुझे दूर से ही देख लिया लेकिन कोई प्रतिक्रिया (response) नही दी | मैं उसके क़रीब जाते हुए 2 गज़ दूर से भौहें ऊपर करके मुस्कुराते  हुए  बोला, "क्या बात है आज भारी लग रहा है?"

"क्या ?" , अपनी आँखे छोटी करके उसने पूँछा |

"अरे तुम्हारा बैग, चलो" मैंने कहा |

हम वहां से पैदल मेन रोड की तरफ़ चलने लगे, वह बार-बार अपना बैग देख रही थी | मै उसे देख-देख कर हँसता जा रहा था | 


"आज कहाँ चलेंगे?" सामने चौराहे से गुज़रती हुई गाड़ियो को देखते हुए उसने पूँछा |

"वैसे जाना किसके साथ है मेरे साथ ही या उन गाड़ियों के साथ" मैंने पूँछा |

"तुम क्या चाहते हो", उसने तिरछी नज़र से मुझे पूँछा |

हम दोनों कुछ देर चुपचाप चलते रहे |

"मैत्री पार्क चलते हैं", उसने कहा |

"अरे! वहां के बागवान बैठने कहाँ देते हैं ? थोड़ी देर बैठो तो दूरी बनाने को कहते हैं |

बागवान नहीं ये 'खाप पंचायत' हो गये हैं |", मैंने ज़ोर-ज़ोर से बोलना शुरू किया |

"तुम फ़िर शुरू हो गये, नहीं सुधरोगे, कब सुधरोगे ?", उसने भी ज़ोर से बोला |

"मै तो ऐसे ही एग्जाम्पल द...", मै वाक्य पूरा नहीं कर पाया |

"खाप-खाप-खाप की रट बस, जब खाप से सामना होगा तब देखूंगी कलेजा तुम्हारा", 

पुनः वह इतना बोलकर चुप हो गई |




काश यह सवाल सुधरने का ,
उसने उससे पूँछा होता,
जिसने थोड़ा कहा,
और चला गया |

 नशीं क्या होती है,
सख्ती क्या होती है,
पिघलना क्या और,
जमना क्या होता है |

यह शहर की हदें,
जहाँ तक वह देख,
दिखा और सोच सकता,
सीमित हैं उसी सीमा तक |

वह भी कभी आशिक था,
जिसकी उसे कद्र नहीं,
आशिक भी शहर है,
जिसे ख़ुद की कद्र नहीं |

लोग मिलते गए,
इश्किया बनता गया,
मिलन हुआ और बिछडन,
हुआ बस ज़िस्मों का |


म दोनों एक मैजिक में स्टेशन मोड़ से सवार होते हैं और कुछ देर बाद एक चौराहा आ जाता है | मैजिक रुकता है और तीन औरतें आकर हमारे सामने वाली सीट पर  बैठ जाती हैं, उनके सामने हम दोनों | उनमे से एक फोन में अपने पति को कुछ नियम सिखा रही थी दूसरी सेल्फी उतार (खींच) रही थी और तीसरी हमें देख रही थी | हम इंतज़ार कर रहे थे कि वह हम दोनों के शुभनाम पूंछे और पूरा नाम न बताने पर दोबारा से सरनेम (उपनाम) के साथ पूरा नाम बताने का आदेश दे या विधेयक पारित करे |



हमने अपने अपने परिवारों की बातें करनी आरम्भ कर दी | उनमे से दो तो पीछे उतर गईं तीसरी ने कुछ गोपनीय विचार करके मेरे बगल में आकर बैठना उचित समझा | अचानक मेरी नज़र ड्राईवर के सर के ऊपर लगे मिरर (दर्पण) पर गई, उसे वह बार-बार सेट करने में लगा  (व्यस्त) था | मैंने इस बात को दरकिनार कर दिया लेकिन मेरे बगल में बैठा शहर का चरित्रवान हिस्सा हमें तीख़ी नज़रों से लगातार देखता रहा | उस औरत का पूरा ध्यान हमारी बातों पर ही था | हम दूसरे चौराहे पर पहुँचे ड्राईवर ने जोर से पूँछा कि किसी को उतरना है? किसी ने जबाव नाह दिया बल्कि एक दूसरे की ओर देखकर चुप रहे | कुछ देर बाद मैत्री पार्क आ गया, हम दोनों आश्चर्य में थे कि हम दोनों नहीं बल्कि चारों उतरे और अन्दर गए |

अन्दर जाने पर दोराहा पड़ता है, एक फूलों की तरफ़ दूसरा पानी के फुहारों की तरफ़ | शहर ने ड्राईवर का हाँथ पकड़ा और फूलों की तरफ़ चली गईं, हम पानी के फुहारे के पास आकर बैठ गए | हम एक दूसरें की ओर देखकर बार बार हँस रहे थे, मै जो सोच रहा था वही वह भी सोच रही थी |

"तुम आंटी जी को याद कर रहे हो ना?" उसने पूँछा |
"हाँ !", मैंने जबाव दिया |
"शायद उन्होंने अपनी उम्र में दोस्ती न की हो, उसी का मज़ा
आज उठा रही हों", उसने इतना कहा और मुँह दबाकर हँसने लगी |

बड़ी आसानी से उसने-मैंने उस औरत के चरित्र का निर्णय लिया लेकिन हमने कोई फैसला नहीं सुनाया ना ज्यादा गंभीर टिप्पणी की | हमारे बारे में उसकी क्या राय, निर्णय या विधेयक होगा इसे परमपिता परमेश्वर ही जान सकते हैं, यह केवल उन्ही के नियंत्रण में है |  


मेरा मन तो कह रहा था कि 
उसकी गोद में सर रखकर सो जाऊं |
सर रखकर सफ़र करूँ उसके कंधे में,
यही दिल ने भी कहा कई बार |
लेकिन
और परख लूं उसको, सोचा 
सर उसके हवाले करने से पहले |