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Hindi Kavita | अपरिपक्व रचनाएँ | कविकुमार सुमित


 अपरिपक्व रचनाएँ






रकारें बनती बिगड़ती रहीं


सरकारें बनती बिगड़ती रहीं,
बीबियाँ झगड़ती रहीं ,
मंहगाई के मर से मानुष,
ये लड़ियाँ टूटकर बिखरती रहीं |

हिचकियाँ तड़पती ही रहीं,
सौतने भड़कती रहीं,
खुदगर्ज़ शासन सम में यारों,
बिन पानी मछलियाँ तड़पती रहीं |

यह जवानी जलकर भड़कती रही,
फाइलें यूं ही सरकती रहीं,
इस नए दौर के प्रजातंत्र में,
आँखों में सबकी खटकती रहीं |

स्त्रियाँ सिर पटकती रहीं,
खून पौधों में छिटकती रहीं,
कसाइयों के जल में उलझकर,
मेरी माँ क्यों बिलखती रही |

चूड़ियाँ चटकती रहीं,
मेहेरबानी में भटकती रहीं,
इस बेरहम सत्ता में सुनो,
पुकारें गले में अटकती रहीं |



सुनो रे !


हे बालकों सुनो हे पालकों सुनो
सुन न सको तो देखकर ही गुणों
कौन कहता है रवि को ?
चन्द्र को धरा को तुम घुमो ?
तपते रहो घुमते रहो,

तारों को चमकते रहो
कौन नदियों को सर को बहते रहो
पर्वतों को कौन अचल रहो
कौन पौधों को वृक्षों को घास को,
पुण्य, दान परोपकार ही करो ?
आज मेरी सुनो कल अपनों की,
न सोचो कभी पराये सपनों की |

मर्यादा पुरुष आये पर वो गए,
कृष्ण आज तक उपदेश देते रहे |


अपनी परछाई को स्थिर करते रहे,
वे प्रतिदिन कल्याण करते चले |

तुम भी अपनी छाप छोड़ सकते हो,
मर कर अमर हो सकते हो |
पूँजी को छोड़ इधर ध्यान दो,
सत्य, धर्म, उपकार पथ पर चलते रहो |

इक दिन इतिहास में नाम आयेगा,
जहाँ तुम्हारे लिखे गीत गायेगा |
सदोपदेश सभी को देते चलो,
कृष्ण, पैगम्बर, ईशू, नाना का पालन करते रहो |