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हिन्दी कविता | गीत | तम कृपा के प्रीति बंधन | कविकुमार सुमित

म कृपा के प्रीति बंधन (गीत)







तम कृपा के प्रीति  बंधन  में  हुआ,
सांध्य युग की  पूर्णिमा में  है धुआं |

जातियों के सर हुए है धर्म की काया बनी,
कोई गैया पूजता  है कोई  खाकर है धनी |

योग भूला है जमाना क्रन्दनो में खो गया,
वीरता का शौर्य सूरज डूब करके सो गया |

सब की नैया सुर तरल पर आज क्यों है तैरती,
वह धरा  जिसने  है पाला  हो  गई है गैर की |

कृत्य ऐसे की  डरा दें धर्म को,
नृत्य ऐसे की भगा दें शर्म को |

चंद्रशेखर और भगत की यह धरा तो भ्रष्ट है,
कुर्सियां सब बंट गयी है सारी जनता त्रस्त है |

ग्राम्य जीवन जी  रहा  हूँ  रह  गया,
कवि तुषारी ऋतु की कविता कह गया |